बड़े गद्दार निकले नेता जी के सियासी शूरमा ।

ऐसी मारी दुलत्ती कि नेताजी जी भौंचक! परेता जी चकाचक
  
   *प्रवीण राय*
(मान्यता प्राप्त पत्रकार)

वैसे तो आधुनिक राजनीति मतलबपरस्ती और स्वार्थ के वसीभूत हो गई है । सत्ता पाने के लिए राजनेता एवं राजनीतिक दल किसी हद तक गुजर जा रहे हैं।और यह एक बदनाम कहावत बन गई है कि 'राजनीति में सबकुछ जायज है'आखिर यह कैसे मान लिया जाए कि राजनीति में सबकुछ जायज है? लोकतंत्र में जनता अपना प्रतिनिधि इसलिए चुनती है कि उस प्रतिनिधि के माध्यम से उसकी आवाज संसद तक पहुंचेगी और उसको न्याय मिलेगा।परंतु आजकल के नेता जनता के सम्मान,स्वाभिमान तथा अधिकार को अपने पैरों तले रौंदकर सिर्फ और सिर्फ अपनी जेब भरने तथा अपना रुतबा कायम करने के लिए लोकतंत्र से खेलने का काम कर कर रहे हैं। खासतौर से‌ बात‌ कर रहे हैं देश के सबसे बड़ी राजनीतिक धुरी उत्तर प्रदेश की, तो यहां के नेता राजनीति को सेवा न मानकर अपना ब्यवसाय मानते हैं और अवसर देखकर भिन्न-भिन्न राजनीतिक दलों से सौदा करके जाति बाहुल्य क्षेत्र से पार्टी के भविष्य को भांपते हुए टिकट खरीद लेते हैं तथा पूरे पांच  साल जनता को बेचकर अपना ब्यवसाय चलाते हैं।इस समय लोकसभा चुनाव 2024 के चुनाव की आहट सुनाई देने लगी है, ऐसे में एकबार फिर जहां एक ओर राजनीतिक दल अपनी बहुमत पाने के लिए गठजोड़ कर रहे हैं, तो वहीं दूसरी ओर सत्तासीन भाजपा उनकी गांठ खोलने में लगी हुई है। सत्ता की लालच ऐसी होती है कि सारे रिश्ते नाते ताक पर रख दिए जाते हैं,जिसका एक उदाहरण उत्तर प्रदेश में विगत दिनों समाजवादी पार्टी में देखने को मिला तो दूसरा महराष्ट्र में एनसीपी में पारिवारिक सेंध लगाकर वहां भी चाचा-भतीजे की गांठ को खोलने का काम किया गया।इस समय राजनीतिक मौसम में इतना तेजी से बदलाव आ रहा है कि बड़े-बड़े मौसम वैज्ञानिक फेल हो जा रहे हैं। बात करते हैं उत्तर प्रदेश की तो यहां विगत विधानसभा के चुनाव में पूर्वांचल की जातिगत चुनावी आबोहवा को देखकर ऐसा लग रहा था कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी सरकार बनाने जा रही है ऐसे में कुछ अवसरवादी नेता जो हमेशा सत्ता के साथ रहकर सुख भोगना चाहते हैं अपनी आस्था बदल दिए और अपनी पुरानी पार्टी को ऐसे लात मारी जैसे,गधा लाख खिलाने-पिलाने के बाद भी अवसर मिलने पर दुलत्ती मारता है।एक नेता जी तो नेवला और सांप की कहानी गढनें लगे और अपने तो अपने पियरका चाचा को भी उपमुख्यमंत्री बनाने का सपना दिखाकर फोड़ लिए। बेचारे पियरकू तो पहले से ही खिसिआए बैठे थे। मौका देख अपना जुबानी घोड़ा ऐसे खोला जैसे अब हमेशा के लिए बेवफा हो जाएंगे। इन दोनों के रंग को देखते हुए भला महामौसम वैज्ञानिक कैसे चूकते और झट आस्था बदल सपाई हो गए सोचा सत्ता में बड़ा कैबिनेट तो पक्का रहेगा, लेकिन सबसे उलट भाजपा के बहुमत को देखकर बेचारे ठगे रह गए और भीतर-भीतर कुढ़ने लगे तथा नेऊरा भाई को कोसते नजर आए। और मौसम आने का इंतजार भी करने लगे जैसे मौसम देखा तुरंत मठाधीश की कुटिया में हाजिरी लगाने लगे। मठाधीश तो भाई खोपड़ी वाला उसको भी ऐसे ही दुलत्ती वाले गधे चाहिए ताकि वह अपना काम बना सके। वहीं दूसरी ओर राजनीति को विरासत में बेचारे भैया जी, जो कान के कच्चे और राजनीति में दिन प्रतिदिन बच्चे साबित हो रहे हैं।वह अपने पिता के बनाए वसूलों पर भी पानी फेर रहे हैं।कारण नेता जी चाहे भले सत्ता में रहे या बाहर अपने संबंधों की गांठ इतनी मजबूत रखते थे कि कोई खोल न सके। वहीं दूसरी ओर उनके वारिस भैया जी की हालत यह है कि जमींन धीरे-धीरे दरकती जा रही है,कारण न तो इनको अपने वफादारों की कद्र है और न अपने संबंधों का तकाजा! बस कनफुंकवों के चक्कर में नेता जी के खून पशीने से बनाई गई पार्टी की दुर्गति करवाने से नहीं चूक रहे हैं,जिसका उदाहरण विगत विधानसभा चुनाव में अपने वफादारों को दरकिनार कर अवसरवादियों को प्रश्रय देना तथा इसका ज्वलंत उदाहरण अभी हाल ही में बीते निगम चुनाव में भी पार्टी की दुर्गति करा डाली और ऐसा टिकट बांटे जिसको कोई जानता तक नहीं।अब बेचारे नेता जी(भैया जी) को चाहे अपनी ग़लती का एहसास हो या न हो लेकिन दुलत्ती मारने वाले नेता जी अंदर-अंदर अपनी काबिलियत और गद्दारी पर बड़े खुश नजर आते हैं। वहीं पार्टी के समर्पित कार्यकर्ता कहते फिर रहे हैं 'बड़े गद्दार निकले भाई'। वैसे इस नेता जी जितनी तारीफ की जाए कम है यह सिर्फ अपने भाग्य और जाति की बदौलत हमेशा बड़े पद पर बने रहते हैं और कोई बयान या उटपटांग हरकत नहीं करते। लेकिन पियरका चाचा तो ऐसे मुंह का घोड़ा खोलते हैं कि मीडिया को मसाला मिल जाए और  बयानबहादुरी का तमगा। पार्टी की इस स्थिति को देखकर  बेचारे सत्तासीन पार्टी के कार्यकर्ता अपने को ठगा महसूस करते हैं। लेकिन बड़े नेता समझाते हैं कि यदि सत्ता में रहेंगे तबी तुम लोगों की भी पूछ होगी।इस प्रकार जातिगत राजनीतिक मजबूरी बताकर कार्यकर्ताओं को खुश कर देते हैं।और समर्पित कार्यकर्ता पार्टी का बोरिया-बिस्तर बिछाने में लग जाते हैं। ऐसे में लोकसभा 2024 के मद्देनजर दो बड़े दलबदलुओं को अपनी गोंद में बैठाकर जहां एक ओर भाजपा ने राजनीतिक हवा को तेज कर दिया कर दिया है, वहीं दूसरी ओर विपक्ष अपने बरसाती मेंढकों को तराजू पर  तौलने का प्रयास कर रही है। ऐसे में आगामी लोकसभा के चुनाव में जनता और राजनीति पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, देखना होगा।